भारत में 1984 का लोकसभा चुनाव अब तक सबसे बड़ा दिलचस्प चुनाव रहा है. इस चुनाव में कांग्रेस को कुल 523 सीटों में से 415 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। लेकिन, कांग्रेस को ये जीत अकेले अपने दम पर नहीं मिली थी। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का सहयोग भी था. हालिया रीलीज एक किताब में ऐसा दावा किया गया है।
राशिद किदवई की किताब '24 अकबर रोड: ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द पीपुल बिहाइंड द फॉल एंड द राइज़ ऑफ द कांग्रेस' में भारत की राजनीति की ऐसे जटिलताओं को उजागर किया गया है, जो शायद ही इसके पहले किसी किताब में किया गया हो. इस किताब का प्रकाशन Hachette India ने किया है।
ऐसे समय में जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार संघ को सांप्रदायिक कह कर उस पर हमला करते हैं, तो उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि उनके पिता राजीव गांधी ने फिर संघ से मदद क्यों मांगी थी? वैसे भी राशिद किदवई लंबे समय तक कांग्रेस कवर करने वाले और कांग्रेस पार्टी के बेहद करीबी पत्रकारों में से एक हैं! राशिद किदवई इससे पूर्व 2011 में सोनिया गांधी की जीवनी- Sonia: A Biography भी लिख चुके हैं। इसलिए राहुल गांधी यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि संघ या भाजपा उनके पिता को बदनाम कर रही है।
इस खुलासे के बाद राहुल गांधी को साफ करना होगा कि जिस संघ से उनके पिता ने पर्दे के पीछे से मदद मांगी थी, उसे वह बार-बार बदनाम करने की कोशिश आखिर किस आधार पर करते रहे हैं? इस खुलासे से सोनिया गांधी और राहुल गांधी की अवसरवादी, तुष्टिकरणवादी और झूठ पर आधारित राजनीति पूरे देश के सामने आ गयी है!
किताब में 'द बिग ट्री एंड द सैपलिंग' नाम से तीसरा चैप्टर है, जिसमें किदवई इसकी शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से करते हैं। उन्होंने लिखा, "इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पाकर जैसे ही राजीव गांधी दिल्ली पहुंचे, पीसी एलेक्जैंडर (इंदिरा के प्रमुख सचिव) और अन्य करीबियों ने उन्हें बताया कि कैबिनेट और कांग्रेस पार्टी चाहती है कि वे प्रधानमंत्री बने। एलेक्जेंडर ने कहा कि राजीव को सोनिया से अलग रखने के निर्देश भी हैं। सोनिया ने राजीव से कहा कि वो ऐसा न करें, लेकिन राजीव गांधी को लगा कि ऐसा करना उनका कर्तव्य है।"
यहीं से राजीव गांधी का सबसे महत्वाकांक्षी राजनीतिक चरण शुरू हुआ. 24 और 27 दिसंबर 1984 में चुनाव कराने का ऐलान किया गया।
किताब में लिखा है, "राजीव गांधी का चुनाव प्रचार बहुत आक्रामक था। उनका चुनाव प्रचार सिखों के लिए अलग राज्य बनाने के मुद्दे पर केंद्रित था। इसके पीछे छिपा एजेंडा हिंदू समुदाय में बढ़ रहे असुरक्षा की भावना का फायदा उठाना और राजीव गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस को उनके एकमात्र रक्षक के तौर पर पेश करना था।"
किदवई ने किताब में दावा किया, "25 दिनों के चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी ने कार, हेलिकॉप्टर और एयरोप्लेन से करीब 50 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा की।"
अपनी मां की हत्या से सहानुभूति की लहर के बीच राजीव गांधी जहां तक संभव हो सके हिंदुत्व ब्रांड की राजनीति को खंगालना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरास के साथ मीटिंग करने का फैसला लिया।
किदवई के मुताबिक, "राजीव गांधी और बालासाहेब देवरस के बीच एक सिक्रेट मीटिंग हुई। जिसके नतीजे के रूप में आरएसएस कैडर ने राजनीतिक परिदृश्य में बीजेपी की मौजूदगी के बावजूद 1984 के चुनाव में कांग्रेस को समर्थन दिया। हालांकि, बीजेपी ने आरएसएस और कांग्रेस के पीएम उम्मीदवार राजीव गांधी के बीच हुए किसी भी तरह के गठबंधन की बात को खारिज कर दिया था।"
तीसरे चैप्टर के आखिर में किदवई लिखते हैं, "सहानुभूति की लहर राजीव के पक्ष में गई... 523 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस को 415 सीटों पर जीत हासिल हुई। इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भी ये आंकड़ा पाने में नाकाम रहे थे।"
किदवई राजीव गांधी के राजनीतिक करियर पर भी रोशनी डालते हैं। उनका दावा है, "राजीव गांधी ने 1984 के चुनाव के लिए आरएसएस से मदद मांगी थी। तब कांग्रेस ने भी इसे लेकर कोई विवाद नहीं किया था। कुछ वक्त पहले कांग्रेस के एक पूर्व सांसद और जाने-माने नेता ने इसकी पुष्टि भी की है।"
कांग्रेस के पूर्व नेता बनवारीलाल पुरोहित (जो तब नागपुर से लोकसभा सांसद थे) का दावा है कि आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरास और राजीव गांधी के बीच मीटिंग कराने में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी।
साल 2007 में इसका खुलासा करते हुए पुरोहित ने कहा था, "चूंकि मैं नागपुर का हूं. इसलिए राजीव ने पूछा कि क्या मैं तत्कालीन आरएसएस चीफ बालासाहेब देवरास को जानता हूं? मैंने कहा- हां बिल्कुल. मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानता हूं। राजीव ने मेरी राय जाननी चाही कि अगर आरएसएस को राम जन्मभूमि के शिलान्यास की इजाजत दे दी जाती है, तो क्या वह कांग्रेस को समर्थन देगा?"
किताब में किदवई ने दावा किया- 'चुनावों के दौरान गैर-बीजेपी पार्टी को समर्थन देने को लेकर आरएसएस का कोई विरोध नहीं था।'
किताब के दूसरे चैप्टर में किदवई लिखते हैं- "शिवसेना के संस्थापक और सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे ने चुनाव में जीत के बाद कैसे समर्थन देने के लिए आरएसएस को धन्यवाद दिया था।"
किदवई लिखते हैं, "सितंबर 1970 में शिवसेना को चुनाव में पहली जीत मिली. शिवसेना को आरएसएस ने समर्थन दिया था। मुंबई (तब बंबई) के परेल में कम्युनिस्ट विधायक कृष्णा देसाई की हत्या के बाद उपचुनाव जरूरी हो गया था। जिसमें शिवसेना ने बतौर उम्मीदवार वामन महादिक को उतारा। वहीं, कम्युनिस्ट पार्टी ने देसाई की पत्नी सरोजिनी को टिकट दिया था। कांग्रेस समेत 9 पार्टियों ने सरोजिनी को समर्थन दिया था। लेकिन, शिवसेना उम्मीदवार ने परेल सीट जीत ली। क्योंकि, आरएसएस नेता मोरोपंत पिंगले ने सार्वजनिक तौर पर लोगों से शिवसेना उम्मीदवार को वोट देने की अपील की थी।"
Source : News18
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